कहानी संग्रह >> मैं हिन्दू हूँ मैं हिन्दू हूँअसगर वजाहत
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‘मैं हिन्दू हूँ’ असग़र का चौथा कहानी-संग्रह है। वे न केवल अपनी गति बनाए हुए हैं बल्कि उनके रचना-संसार में संवेदना के धरातल पर कुछ परिवर्तन भी आए हैं।
Main hindu hoon
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
असग़र वजाहत उन विरले कहानीकारों में गिने जाते हैं जिन्होंने पूरी तरह अपनी प्रतिबद्धता बनाए रखते हुए भाषा और शिल्प के सार्थक प्रयोग किए हैं। उनकी कहानियाँ एक ओर आश्वस्त करती हैं कि कहानी की प्रेरणा और आधारशिला सामाजिकता ही हो सकती है तो दूसरी ओर यह भी स्थापित करती हैं कि प्रतिबद्धता के साथ नवीनता, प्रयोगधर्मिता का मेल असंगत नहीं है। ‘मास मीडिया’ से आक्रांत इस युग में असग़र वजाहत की कहानियाँ बड़ी जिम्मेदारी से नई ‘स्पेश’ तलाश कर लेती हैं। राजनीति और मनोरंजन द्वारा मीडिया पर एकाधिकार स्थापित कर लेने वाले समय में असग़र की कहानियाँ अपनी विशेष भाषा और शिल्प के कारण अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई हैं।
‘मैं हिन्दू हूँ’ असग़र का चौथा कहानी-संग्रह है। वे न केवल अपनी गति बनाए हुए हैं बल्कि उनके रचना-संसार में संवेदना के धरातल पर कुछ परिवर्तन भी आए हैं। हास्य, व्यंग्य और खिलंदड़ापन के साथ-साथ अब उनकी कहानी में गहरा अवसाद और दुःख शामिल हो गया है। बहुआयामी जटिल यथार्थ और आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए वे नए ‘हथियारों की तलाश’ में दिखाई पड़ते हैं।
विषय की विविधता के बावजूद उनकी कहानियों में साम्प्रदायिकता की समस्या तथा सामाजिक अवमूल्यन का अपना अलग महत्त्व है। उनकी कहानियाँ दरअसल उन लोगों की कहानियां है जो समाज के हाशिए पर पड़े हैं लेकिन बड़े सामाजिक संदर्भों से जुड़ने का जतन करते रहते हैं। इन कहानियों में असग़र कल्पना और फैंटेसी के सम्मिश्रण से एक ऐसी भाव-भूमि की संरचना करते हैं जो कहानी को विस्तार देती है। उनकी कहानियाँ पाठकों से माँग करती हैं कि शब्दों और वाक्यों के समान्तर रचे गए अनकहे संसार की परतें भी खोलते रहें।
रोचकता की तमाम शर्तों पर पूरा उतरते हुए असग़र वजाहत की कहानियाँ गम्भीर विश्लेषणात्मक रवैये की माँग करता है।
‘मैं हिन्दू हूँ’ असग़र का चौथा कहानी-संग्रह है। वे न केवल अपनी गति बनाए हुए हैं बल्कि उनके रचना-संसार में संवेदना के धरातल पर कुछ परिवर्तन भी आए हैं। हास्य, व्यंग्य और खिलंदड़ापन के साथ-साथ अब उनकी कहानी में गहरा अवसाद और दुःख शामिल हो गया है। बहुआयामी जटिल यथार्थ और आम आदमी की पीड़ा को व्यक्त करने के लिए वे नए ‘हथियारों की तलाश’ में दिखाई पड़ते हैं।
विषय की विविधता के बावजूद उनकी कहानियों में साम्प्रदायिकता की समस्या तथा सामाजिक अवमूल्यन का अपना अलग महत्त्व है। उनकी कहानियाँ दरअसल उन लोगों की कहानियां है जो समाज के हाशिए पर पड़े हैं लेकिन बड़े सामाजिक संदर्भों से जुड़ने का जतन करते रहते हैं। इन कहानियों में असग़र कल्पना और फैंटेसी के सम्मिश्रण से एक ऐसी भाव-भूमि की संरचना करते हैं जो कहानी को विस्तार देती है। उनकी कहानियाँ पाठकों से माँग करती हैं कि शब्दों और वाक्यों के समान्तर रचे गए अनकहे संसार की परतें भी खोलते रहें।
रोचकता की तमाम शर्तों पर पूरा उतरते हुए असग़र वजाहत की कहानियाँ गम्भीर विश्लेषणात्मक रवैये की माँग करता है।
ज़ख़्म
बदलते हुए मौसम की तरह राजधानी में साम्प्रदायिक दंगों का भी मौसम आता है। फर्क इतना है कि मौसमों के आने-जाने के बारे में जैसे स्पष्ट अनुमान लगाए जा सके हैं वैसे अनुमान साम्प्रादायिक दंगों के मामले में नहीं लगते। फिर भी शहर यह मानने लगा है कि साम्प्रदायिक दंगा भी मौसमों की तरह निश्चित रूप से आता है। बात इतनी सहज-साधारण बना दी गई है कि साम्प्रदायिक दंगों की खबरें लोग इसी तरह सुनाते हैं जैसे ‘गर्मी बहुत बढ़ गई है’ या ‘अबकी पानी बहुत बरसा’ जैसी खबरें सुनी जाती हैं। दंगों की खबर सुनकर बस इतना ही होता है कि शहर का एक हिस्सा ‘कर्फ्यूग्रस्त’ हो जाता है। लोग रास्ते बदल लेते हैं। इस थोड़ी-सी असुविधा पर मन-ही मन कभी खीज जाते हैं, उसी तरह जैसे बेहतर गर्मी पर या लगातार पानी बरसने पर कोफ्त होती है। शहर के सारे काम यानी उद्योग, व्यापार, शिक्षण, सरकारी काम-काज सब सामान्य ढंग से चलता रहता है।
मंत्रिमंडल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधनामंत्री विदेश यात्राओं पर जाते हैं, मंत्री उद्घाटना करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की खबरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्रायः हाशिए पर ही छाप देते हैं। हाँ, मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में खबर छपती हैं, नहीं तो सामान्य।
यह भी एक स्वस्थ परम्परा-सी बन गई है कि साम्प्रदायिक दंगा हो जाने पर शहर में ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन’ होता है। सम्मेलन के आयोजकों तथा समर्थकों के बीच अक्सर इस बात पर बहस हो जाती है कि दंगा के तुरन्त बाद न करने सम्मेलन इतनी देर में क्यों किया गया। इस इलज़ाम का जवाब आयोजकों के पास होता है। वे कहते हैं कि प्रजातान्त्रिक तरीके से काम करने में समय लग जाता है। जबकि गैर प्रजातान्त्रिक तरीके से किए जाने वाले काम फट से हो जाते हैं—जैसे दंगा। लेकिन दंगों के विरोध में सम्मेलन करने में समय लगता है। क्योंकि किसी वामपंथी पार्टी की प्रान्तीय कमेटी सम्मेलन करने का सुझाव राष्ट्रीय कमेटी को देती है। राष्ट्रीय कमेटी के तदर्थ समिति बना देती है ताकि सम्मेलन की रूपरेखा तैयार की जा सके। तदर्थ समिति अपने सुझाव देने में कुछ समय लगाती है। उसके बाद उसकी सिफारिशें राष्ट्रीय कमेटी में जाती हैं। राष्ट्रीय कमेटी में उन पर चर्चा होती है और एक नयी कमेटी बनायी जाती है जिसका सम्मेलन के स्वरूप के अनुसार कार्य करना होता है।
अगर राय यह बनती है कि साम्प्रदायिकता जैसे गम्भीर मसले पर होने वाले सम्मेलन में सभी वामपंथी लोकतान्त्रिक शक्तियों को एक मंच पर लाया जाए, तो दूसरे दलों से बातचीत होती है। दूसरे दल भी जनतान्त्रिक तरीके से अपने शामिल होने के बारे में निर्णय लेते हैं। उसके बाद यह कोशिश की जाती है कि ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन’ में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए नामी हिन्दू, मुसलमान, सिख नागरिकों का होना भी जरूरी है। उनके नाम सभी दल जनतान्त्रिक तरीके से तय करते हैं। अच्छी बात है कि शहर में ऐसे नामी हिन्दू मुस्लिम, सिख नागरिक हैं जो इस काम के लिए तैयार हो जाते हैं। उन नागरिकों की एक सूची है, उदाहरण के लिए भारतीय वायुसेना से अवकास-प्राप्त एक लेफ्टीनेंट जनरल हैं, जो सिख हैं, राजधानी के एक अलप्संख्यकनुमा विश्वविद्यालय के उप-कुलपति हैं तथा विदेश सेवा से अवकाश-प्राप्त एक राजदूत हिन्दू हैं, इसी तरह के कुछ और नाम भी हैं। ये सब भले लोग हैं, समाज और प्रेस में इनका बड़ा सम्मान है। पढ़े-लिखे तथा बड़े-बड़े पदों पर आसानी या अवकास-प्राप्त। उनके सेकुलर होने में किसी को कोई शक नहीं हो सकता। और वे हमेशा इस तरह के साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में आने पर तैयार हो जाते हैं।
एक दिन सो कर उठा और हब्बे-दस्तूर आँखें मलता हुआ अखबार उठाने बालकनी पर आया तो हैडिंग थी—‘पुरानी दिल्ली में दंगा हो गया। तीन मारे गए। बीस घायल। दस की हालत गंभीर। पचास लाख की सम्पत्ति नष्ट हो गई।’ पूरी खबर पढ़ी तो पता चला कि दंगा कस्साबपुरे में भी हुआ है। कस्साबपुरे का ख्याल आते ही मुख्तार का ख्याल आ गया। वह वहीं रहता था। अपने शहर का था। सिलाई का काम करता था कनाट प्लेस की दुकान में। अब सवाल ये था कि मुख्तार से कैसे ‘कान्टैक्ट’ हो। कोई रास्ता नहीं था; न फोन, न कर्फ्यू-पास और न कुछ और।
मुख्तार और मैं, जैसा कि मैं लिख चुका हूँ, एक ही शहर के हैं। मुख्तार दर्जा आठ तक इस्लामिया स्कूल में पढ़ा और फिर अपने पुस्तैनी सिलाई के धन्धे में लग गया था। मैं उससे बाद में मिला था, उस वक्त जब मैं हिन्दी में एम.ए. करने के बाद बेकारी और नौकरी की तलाश से तंग आकर अपने शहर में रहने लगा था। वहाँ मेरे एक रिश्तेदार, जिन्हें हम सब हथियार कहा करते थे, आवारगी करते थे। आवारगी का मतलब कोई गलत न लीजिएगा, मतलब कि ये बेकार थे। इंटर में कई बार फेल हो चुके थे और उनका शहर में जनसम्पर्क अच्छा था। तो उन्होंने मेरी मुलाकात मुख्तार से कराई थी। पहली, दूसरी और तीसरी मुलाकात में वह कुछ नहीं बोला था। शहर की मुख्य सड़क पर सिलाई की एक दुकान में वह काम करता था और शान को हम लोग उसकी दुकान पर बैठा करते थे। दुकान का एक मालिक बफाती भाई मालदार और बाल-बच्चेदार आदमी था। वह शाम के सात बजते हैं दुकान की चाबी मुख्तार को सौंपकर और भैंसे का गोश्त लेकर घर चला जाता था। उसके बाद वह दुकान मुख्तार की होती थी। एक दिन अचानक हैदर हथियार ने यह राज खोल दिया कि मुख्तार भी ‘बिरादर’ है। ‘बिरादर’ का मतलब भाई होता है, लेकिन हमारी जुबान में ‘बिरादर’ का मतलब था जो आदमी शराब पीता है, लेकिन हमारी जुबान में ‘बिरादर’ का मतलब था जो आदमी शराब पीता हो।
शुरू-शुरू में मुख्तार का मुझसे जो डर था वह दो-चार बार साथ पीने से खत्म हो गया था। और मुझे ये जानकर बड़ी हैरत हुई थी कि वह अपने समाज और उसकी समस्याओं में रुचि रखता है। वह उर्दू का अखबार पढ़ता था। खबरें ही नहीं, खबरों का विश्लेषण भी करता था और उसका मुख्य विषय हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता थी। जब मैं उससे मिला तब, अगर बहुत सीधी जुबान से कहें तो वह पक्का मुस्लिम साम्प्रदायिक था। शराब पीकर जब वह खुलता था तो सेर की तरह दहाड़ने लगता था। उसका चेहरा लाल हो जाता था। वह हाथ हिला-हिलाकर इतनी कड़वी बातें करता था कि मेरा जैसा धैर्यवान न होता तो कब की लड़ाई हो गई होती। लेकिन मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रहने और वहाँ ‘स्टूडेंट फेडरेशन’ की राजनीति करने के कारण पक चुका था। मुझे मालूम था कि भावुकता और आक्रोश का जवाब केवल प्रेम और तर्क से दिया जा सकता है। वह मुहम्मद अली जिन्ना का भक्त था। श्रद्धावश उनका नाम नहीं लेता था। बल्कि उन्हें ‘कायदे आजम’ कहता था। उसे मुस्लिम लीग से बेपनाह हमदर्दी थी और वह द्वि-राष्ट्रवाद को बिलकुल सही मानता था। पाकिस्तान के इस्लामी मुल्क होने पर गर्व करता था और पाकिस्तान को श्रेष्ठ मानता था।
मुझे याद है कि एक दिन उसकी दुकान में मैं, हैदर हथियार और उमाशंकर बैठे थे। शाम हो चुकी थी। दुकान के मालिक बफाती भाई जा चुके थे। कड़कड़ाते जाड़ों के दिन थे। बिजली चली गई थी। दुकान में एक लैंप जल रहा था, उसकी रोशनी में मुख्तार मशीन की तेजी से एक पैंट सी रही था। अर्जेन्ट काम था। लैम्प की रोशनी की वजह से सामने वाली दीवार पर उसके सिर की परछाईं एक बड़े आकार में हिल रही थी। मशीन चलने की आवाज से पूरी दुकान थर्रा रही थी। हम तीनों मुख्तार के काम खत्म होने का इन्तजार कर रहे थे। प्रोग्राम यह था कि उसके बाद ‘चुस्की’ लगाई जाएगी। आधे घंटे बाद काम खत्म हो गया और ‘चाय की प्यालियाँ’ लेकर हम बैठे गए। बातचीत घूम-घूमकर पाकिस्तान पर आ गई। हस्बे-दस्तूर मुख्तार पाकिस्तान की तारीफ करने लगा। ‘कायदे आजम’ की बुद्धिमानी के गीत गाने लगा। उमाशंकर से उसका कोई पर्दा न था, क्योंकि दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। कुछ देर बाद मौका देखकर मैंने कहा, ‘‘ये बताओ मुख्तार, जिन्ना ने पाकिस्तान क्यों बनवाया ?’’
‘‘इसलिए कि मुसलमान वहाँ रहेंगें’’, वह बोला।
‘‘मुसलमान तो यहाँ भी रहते हैं।’’
‘‘लेकिन वो इस्लामी मुल्क है।’’
‘‘तुम पाकिस्तान तो गए हो ?’’
‘‘हाँ गया हूँ।’’
‘‘वहाँ और यहाँ क्या फर्क है ?’
‘‘बहुत बड़ा फर्क है।’’
‘‘क्या फर्क है ?’’
‘‘वो इस्लामी मुल्क है।’’
‘‘ठीक है, लेकिन यह बताओ कि वहाँ–गरीबों और अमीरों में वैसा ही फर्क नहीं है जैसा यहाँ है; क्या वहाँ रिश्वत नहीं चलती; क्या वहाँ भाई-भतीजावाद नहीं है; क्या वहाँ पंजाबी-सिन्धी और मोहाजिर ‘फीलिंग’ नहीं है ! क्या पुलिस लोगों को फँसाकर पैसा नहीं वसूलती ?’’ मुख्तार चुप हो गया। उमाशंकर बोले, ‘‘हाँ, बताओ..अब चुप काहे हो गए ?’’ मुख्तार ने कहा, ‘‘हाँ, ये सब तो वहाँ भी हैं लेकिन है तो इस्लामी मुल्क।’’
‘‘यार, वहाँ डिक्टेटरशिप है, इस्लाम तो बादशाहत तक के खिलाफ है, तो वो कैसा इस्लामी मुल्क हुआ ?’
‘‘अमाँ छोड़ो...क्या औरते वहाँ पर्दा करती हैं ? बैंक तो वहाँ भी ब्याज लेते देते होंगे...फिर काहे का इस्लामी मुल्क।’’ उमाशंकर ने कहा।
‘‘भइया, इस्लाम ‘मसावात’ सिखाता है...मतलब बराबरी, तुमने पाकिस्तान में बराबरी देखी ?’’
मुख्तार थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर अचानक फट पड़ा, ‘‘और यहाँ क्या है मुसलमानों के लिए ? इलाहाबाद, अलीगढ़, मेरठ, मुरादाबाद, दिल्ली भिवंडी—कितने नाम गिनाऊँ...मुसलमानों की जान इस तरह ली जाती है जैसे कीड़े-मकोडे हों।’’
‘‘हाँ, तुम ठीक कहते हो।’’
‘‘मैं कहता हूँ ये फसाद क्यों होते हैं ?’’
‘‘भाई मेरे, फसाद होते नहीं, कराए जाते हैं।’’
‘‘’कराए जाते हैं ?’’
‘‘हाँ भाई, अब तो बात जगजाहिर है।’’
‘‘कौन कराते हैं ?’
‘‘जिन्हें उससे फायदा होता है।’’
‘‘किन्हें उन्हें फायदा होता है ?’’
‘‘वो लोग जो मजहब के नाम पर वोट माँगते हैं। वो लोग जो मजहब के नाम पर नेतागिरी करते हैं।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘देखो, जरा सिर्फ तसव्वुर करो कि हिन्दुस्तान में हिन्दुओं, मुसलमानों के बीच कोई झगड़ा नहीं है। कोई बाबरी मस्जिद नहीं है। कोई राम जन्म-भूमि नहीं है। सब प्यार से रहते हैं, तो भाई, ऐसी हालत में मुस्लिम लीग या आर.एस.एस. के नेताओं के पास कौन जाएगा ? उनका वजूद ही खत्म हो जाएगा। इस तरह समझ लो कि शहर में कोई डॉक्टर है जो सिर्फ कान का इलाज करता है और पूरे शहर में सब लोगों के कान ठीक हो जाते हैं। किसी को कान में कोई तकलीफ नहीं है, तो डॉक्टर अपना पेशा छोड़ना पड़ेगा या शहर छोड़ना पड़ेगा।’’
वह चुप हो गया। शायद वह अपना जवाब सोच रहा था। मैंने फिर कहा, ‘‘और फिरकापरस्ती से उन लोगों को भी फायदा होता है जो इस देश की सरकार चला रहे हैं।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘अगर तुम्हारे दो पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं, एक-दूसरे के पक्के दुश्मन हैं, तो तुम्हें उन दोनों से कोई खतरा नहीं हो सकता...उसी तरह हिन्दू और मुसलमान आपस में ही लड़ते रहें तो सरकार से क्या लड़ेंगे ? क्या कहेंगे कि हमारा ये हक है, हमारा वो हक है और तीसरा फायदा उन लोगों को पहुँचता है जिनका कारोबार उसकी वजह से तरक्की करता है। अलीगढ़ में फसाद, भिवण्डी के फसाद इसकी मिशालें हैं।’’
ये तो शुरुआत थी। धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि हम लोग जब भी मिलते थे, बातचीत इन्हीं बातों पर होती। चाय या होटल हो या शहर के बाहर सड़क के किनारे कोई बीरान-सी पुलिया-बहस शुरू हो जाया करती थी। बहस भी अजब चीज है।
मंत्रिमंडल की बैठकें होती हैं। संसद के अधिवेशन होते हैं। विरोधी दलों के धरने होते हैं। प्रधनामंत्री विदेश यात्राओं पर जाते हैं, मंत्री उद्घाटना करते हैं, प्रेमी प्रेम करते हैं, चोर चोरी करते हैं। अखबार वाले भी दंगे की खबरों में कोई नया या चटपटापन नहीं पाते और प्रायः हाशिए पर ही छाप देते हैं। हाँ, मरने वालों की संख्या अगर बढ़ जाती है तो मोटे टाइप में खबर छपती हैं, नहीं तो सामान्य।
यह भी एक स्वस्थ परम्परा-सी बन गई है कि साम्प्रदायिक दंगा हो जाने पर शहर में ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन’ होता है। सम्मेलन के आयोजकों तथा समर्थकों के बीच अक्सर इस बात पर बहस हो जाती है कि दंगा के तुरन्त बाद न करने सम्मेलन इतनी देर में क्यों किया गया। इस इलज़ाम का जवाब आयोजकों के पास होता है। वे कहते हैं कि प्रजातान्त्रिक तरीके से काम करने में समय लग जाता है। जबकि गैर प्रजातान्त्रिक तरीके से किए जाने वाले काम फट से हो जाते हैं—जैसे दंगा। लेकिन दंगों के विरोध में सम्मेलन करने में समय लगता है। क्योंकि किसी वामपंथी पार्टी की प्रान्तीय कमेटी सम्मेलन करने का सुझाव राष्ट्रीय कमेटी को देती है। राष्ट्रीय कमेटी के तदर्थ समिति बना देती है ताकि सम्मेलन की रूपरेखा तैयार की जा सके। तदर्थ समिति अपने सुझाव देने में कुछ समय लगाती है। उसके बाद उसकी सिफारिशें राष्ट्रीय कमेटी में जाती हैं। राष्ट्रीय कमेटी में उन पर चर्चा होती है और एक नयी कमेटी बनायी जाती है जिसका सम्मेलन के स्वरूप के अनुसार कार्य करना होता है।
अगर राय यह बनती है कि साम्प्रदायिकता जैसे गम्भीर मसले पर होने वाले सम्मेलन में सभी वामपंथी लोकतान्त्रिक शक्तियों को एक मंच पर लाया जाए, तो दूसरे दलों से बातचीत होती है। दूसरे दल भी जनतान्त्रिक तरीके से अपने शामिल होने के बारे में निर्णय लेते हैं। उसके बाद यह कोशिश की जाती है कि ‘साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलन’ में साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए नामी हिन्दू, मुसलमान, सिख नागरिकों का होना भी जरूरी है। उनके नाम सभी दल जनतान्त्रिक तरीके से तय करते हैं। अच्छी बात है कि शहर में ऐसे नामी हिन्दू मुस्लिम, सिख नागरिक हैं जो इस काम के लिए तैयार हो जाते हैं। उन नागरिकों की एक सूची है, उदाहरण के लिए भारतीय वायुसेना से अवकास-प्राप्त एक लेफ्टीनेंट जनरल हैं, जो सिख हैं, राजधानी के एक अलप्संख्यकनुमा विश्वविद्यालय के उप-कुलपति हैं तथा विदेश सेवा से अवकाश-प्राप्त एक राजदूत हिन्दू हैं, इसी तरह के कुछ और नाम भी हैं। ये सब भले लोग हैं, समाज और प्रेस में इनका बड़ा सम्मान है। पढ़े-लिखे तथा बड़े-बड़े पदों पर आसानी या अवकास-प्राप्त। उनके सेकुलर होने में किसी को कोई शक नहीं हो सकता। और वे हमेशा इस तरह के साम्प्रदायिकता विरोधी सम्मेलनों में आने पर तैयार हो जाते हैं।
एक दिन सो कर उठा और हब्बे-दस्तूर आँखें मलता हुआ अखबार उठाने बालकनी पर आया तो हैडिंग थी—‘पुरानी दिल्ली में दंगा हो गया। तीन मारे गए। बीस घायल। दस की हालत गंभीर। पचास लाख की सम्पत्ति नष्ट हो गई।’ पूरी खबर पढ़ी तो पता चला कि दंगा कस्साबपुरे में भी हुआ है। कस्साबपुरे का ख्याल आते ही मुख्तार का ख्याल आ गया। वह वहीं रहता था। अपने शहर का था। सिलाई का काम करता था कनाट प्लेस की दुकान में। अब सवाल ये था कि मुख्तार से कैसे ‘कान्टैक्ट’ हो। कोई रास्ता नहीं था; न फोन, न कर्फ्यू-पास और न कुछ और।
मुख्तार और मैं, जैसा कि मैं लिख चुका हूँ, एक ही शहर के हैं। मुख्तार दर्जा आठ तक इस्लामिया स्कूल में पढ़ा और फिर अपने पुस्तैनी सिलाई के धन्धे में लग गया था। मैं उससे बाद में मिला था, उस वक्त जब मैं हिन्दी में एम.ए. करने के बाद बेकारी और नौकरी की तलाश से तंग आकर अपने शहर में रहने लगा था। वहाँ मेरे एक रिश्तेदार, जिन्हें हम सब हथियार कहा करते थे, आवारगी करते थे। आवारगी का मतलब कोई गलत न लीजिएगा, मतलब कि ये बेकार थे। इंटर में कई बार फेल हो चुके थे और उनका शहर में जनसम्पर्क अच्छा था। तो उन्होंने मेरी मुलाकात मुख्तार से कराई थी। पहली, दूसरी और तीसरी मुलाकात में वह कुछ नहीं बोला था। शहर की मुख्य सड़क पर सिलाई की एक दुकान में वह काम करता था और शान को हम लोग उसकी दुकान पर बैठा करते थे। दुकान का एक मालिक बफाती भाई मालदार और बाल-बच्चेदार आदमी था। वह शाम के सात बजते हैं दुकान की चाबी मुख्तार को सौंपकर और भैंसे का गोश्त लेकर घर चला जाता था। उसके बाद वह दुकान मुख्तार की होती थी। एक दिन अचानक हैदर हथियार ने यह राज खोल दिया कि मुख्तार भी ‘बिरादर’ है। ‘बिरादर’ का मतलब भाई होता है, लेकिन हमारी जुबान में ‘बिरादर’ का मतलब था जो आदमी शराब पीता है, लेकिन हमारी जुबान में ‘बिरादर’ का मतलब था जो आदमी शराब पीता हो।
शुरू-शुरू में मुख्तार का मुझसे जो डर था वह दो-चार बार साथ पीने से खत्म हो गया था। और मुझे ये जानकर बड़ी हैरत हुई थी कि वह अपने समाज और उसकी समस्याओं में रुचि रखता है। वह उर्दू का अखबार पढ़ता था। खबरें ही नहीं, खबरों का विश्लेषण भी करता था और उसका मुख्य विषय हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिकता थी। जब मैं उससे मिला तब, अगर बहुत सीधी जुबान से कहें तो वह पक्का मुस्लिम साम्प्रदायिक था। शराब पीकर जब वह खुलता था तो सेर की तरह दहाड़ने लगता था। उसका चेहरा लाल हो जाता था। वह हाथ हिला-हिलाकर इतनी कड़वी बातें करता था कि मेरा जैसा धैर्यवान न होता तो कब की लड़ाई हो गई होती। लेकिन मैं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में रहने और वहाँ ‘स्टूडेंट फेडरेशन’ की राजनीति करने के कारण पक चुका था। मुझे मालूम था कि भावुकता और आक्रोश का जवाब केवल प्रेम और तर्क से दिया जा सकता है। वह मुहम्मद अली जिन्ना का भक्त था। श्रद्धावश उनका नाम नहीं लेता था। बल्कि उन्हें ‘कायदे आजम’ कहता था। उसे मुस्लिम लीग से बेपनाह हमदर्दी थी और वह द्वि-राष्ट्रवाद को बिलकुल सही मानता था। पाकिस्तान के इस्लामी मुल्क होने पर गर्व करता था और पाकिस्तान को श्रेष्ठ मानता था।
मुझे याद है कि एक दिन उसकी दुकान में मैं, हैदर हथियार और उमाशंकर बैठे थे। शाम हो चुकी थी। दुकान के मालिक बफाती भाई जा चुके थे। कड़कड़ाते जाड़ों के दिन थे। बिजली चली गई थी। दुकान में एक लैंप जल रहा था, उसकी रोशनी में मुख्तार मशीन की तेजी से एक पैंट सी रही था। अर्जेन्ट काम था। लैम्प की रोशनी की वजह से सामने वाली दीवार पर उसके सिर की परछाईं एक बड़े आकार में हिल रही थी। मशीन चलने की आवाज से पूरी दुकान थर्रा रही थी। हम तीनों मुख्तार के काम खत्म होने का इन्तजार कर रहे थे। प्रोग्राम यह था कि उसके बाद ‘चुस्की’ लगाई जाएगी। आधे घंटे बाद काम खत्म हो गया और ‘चाय की प्यालियाँ’ लेकर हम बैठे गए। बातचीत घूम-घूमकर पाकिस्तान पर आ गई। हस्बे-दस्तूर मुख्तार पाकिस्तान की तारीफ करने लगा। ‘कायदे आजम’ की बुद्धिमानी के गीत गाने लगा। उमाशंकर से उसका कोई पर्दा न था, क्योंकि दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। कुछ देर बाद मौका देखकर मैंने कहा, ‘‘ये बताओ मुख्तार, जिन्ना ने पाकिस्तान क्यों बनवाया ?’’
‘‘इसलिए कि मुसलमान वहाँ रहेंगें’’, वह बोला।
‘‘मुसलमान तो यहाँ भी रहते हैं।’’
‘‘लेकिन वो इस्लामी मुल्क है।’’
‘‘तुम पाकिस्तान तो गए हो ?’’
‘‘हाँ गया हूँ।’’
‘‘वहाँ और यहाँ क्या फर्क है ?’
‘‘बहुत बड़ा फर्क है।’’
‘‘क्या फर्क है ?’’
‘‘वो इस्लामी मुल्क है।’’
‘‘ठीक है, लेकिन यह बताओ कि वहाँ–गरीबों और अमीरों में वैसा ही फर्क नहीं है जैसा यहाँ है; क्या वहाँ रिश्वत नहीं चलती; क्या वहाँ भाई-भतीजावाद नहीं है; क्या वहाँ पंजाबी-सिन्धी और मोहाजिर ‘फीलिंग’ नहीं है ! क्या पुलिस लोगों को फँसाकर पैसा नहीं वसूलती ?’’ मुख्तार चुप हो गया। उमाशंकर बोले, ‘‘हाँ, बताओ..अब चुप काहे हो गए ?’’ मुख्तार ने कहा, ‘‘हाँ, ये सब तो वहाँ भी हैं लेकिन है तो इस्लामी मुल्क।’’
‘‘यार, वहाँ डिक्टेटरशिप है, इस्लाम तो बादशाहत तक के खिलाफ है, तो वो कैसा इस्लामी मुल्क हुआ ?’
‘‘अमाँ छोड़ो...क्या औरते वहाँ पर्दा करती हैं ? बैंक तो वहाँ भी ब्याज लेते देते होंगे...फिर काहे का इस्लामी मुल्क।’’ उमाशंकर ने कहा।
‘‘भइया, इस्लाम ‘मसावात’ सिखाता है...मतलब बराबरी, तुमने पाकिस्तान में बराबरी देखी ?’’
मुख्तार थोड़ी देर के लिए चुप हो गया। फिर अचानक फट पड़ा, ‘‘और यहाँ क्या है मुसलमानों के लिए ? इलाहाबाद, अलीगढ़, मेरठ, मुरादाबाद, दिल्ली भिवंडी—कितने नाम गिनाऊँ...मुसलमानों की जान इस तरह ली जाती है जैसे कीड़े-मकोडे हों।’’
‘‘हाँ, तुम ठीक कहते हो।’’
‘‘मैं कहता हूँ ये फसाद क्यों होते हैं ?’’
‘‘भाई मेरे, फसाद होते नहीं, कराए जाते हैं।’’
‘‘’कराए जाते हैं ?’’
‘‘हाँ भाई, अब तो बात जगजाहिर है।’’
‘‘कौन कराते हैं ?’
‘‘जिन्हें उससे फायदा होता है।’’
‘‘किन्हें उन्हें फायदा होता है ?’’
‘‘वो लोग जो मजहब के नाम पर वोट माँगते हैं। वो लोग जो मजहब के नाम पर नेतागिरी करते हैं।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘देखो, जरा सिर्फ तसव्वुर करो कि हिन्दुस्तान में हिन्दुओं, मुसलमानों के बीच कोई झगड़ा नहीं है। कोई बाबरी मस्जिद नहीं है। कोई राम जन्म-भूमि नहीं है। सब प्यार से रहते हैं, तो भाई, ऐसी हालत में मुस्लिम लीग या आर.एस.एस. के नेताओं के पास कौन जाएगा ? उनका वजूद ही खत्म हो जाएगा। इस तरह समझ लो कि शहर में कोई डॉक्टर है जो सिर्फ कान का इलाज करता है और पूरे शहर में सब लोगों के कान ठीक हो जाते हैं। किसी को कान में कोई तकलीफ नहीं है, तो डॉक्टर अपना पेशा छोड़ना पड़ेगा या शहर छोड़ना पड़ेगा।’’
वह चुप हो गया। शायद वह अपना जवाब सोच रहा था। मैंने फिर कहा, ‘‘और फिरकापरस्ती से उन लोगों को भी फायदा होता है जो इस देश की सरकार चला रहे हैं।’’
‘‘कैसे ?’’
‘‘अगर तुम्हारे दो पड़ोसी आपस में लड़ रहे हैं, एक-दूसरे के पक्के दुश्मन हैं, तो तुम्हें उन दोनों से कोई खतरा नहीं हो सकता...उसी तरह हिन्दू और मुसलमान आपस में ही लड़ते रहें तो सरकार से क्या लड़ेंगे ? क्या कहेंगे कि हमारा ये हक है, हमारा वो हक है और तीसरा फायदा उन लोगों को पहुँचता है जिनका कारोबार उसकी वजह से तरक्की करता है। अलीगढ़ में फसाद, भिवण्डी के फसाद इसकी मिशालें हैं।’’
ये तो शुरुआत थी। धीरे-धीरे ऐसा होने लगा कि हम लोग जब भी मिलते थे, बातचीत इन्हीं बातों पर होती। चाय या होटल हो या शहर के बाहर सड़क के किनारे कोई बीरान-सी पुलिया-बहस शुरू हो जाया करती थी। बहस भी अजब चीज है।
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